कहानी,अमृता प्रीतम,अंतरव्यथा (नीचे के कपड़े)
जिसके मन की पीड़ा को लेकर मैंने कहानी लिखी थी-'नीचे के कपड़े" उसका नाम भूल गई हूँ । कहानी में सही नाम लिखना नहीं था, और उससे एक बार ही मुलाकात हुई थी, इसलिए नाम भी याद से उतर गया है...
जब वह मिलने आई थी, बीमार थी। खूबसूरत थी, पर रंग और मन उतरा हुआ था। वह एक ही विश्वास को लेकर आई थी कि मैं उसके हालात पर एक कहानी लिख दूँ...
मैंने पूछा-इससे क्या होगा?
कहने लगी-जहाँ वह चिट्ठियाँ पड़ीं हैं जो मैं अपने हाथों से नहीं फाड़ सकती, उन्हीं चिट्ठियों में वह कहानी रख दूँगी...मुझे लगता है, मैं बहुत दिन जिंदा नहीं रहूँगी, और बाद में जब उन चिट्ठियों से कोई कुछ जान पाएगा, तो मुझे वह नहीं समझेगा जो मैं हूँ। आप कहानी लिखेंगी तो वहीं रख दूँगी। हो सकता है, उसकी मदद से कोई मुझे समझ ले मेरी पीड़ा को संभाल ले। मुझे और किसी का कुछ फिक्र नहीं है, पर मेरा एक बेटा है, अभी वह छोटा है, वह बड़ा होगा तो मैं सोचती हूँ कि बस वह मुझे गलत न समझे...
उसकी जिंदगी के हालात सचमुच बहुत उलझे हुए थे और मेरी पकड़ में नहीं आ रहा था कि मैं उन्हें कैसे समेट पाऊँगी। लिखने का वादा तो नहीं किया पर कहा कि कोशिश करूँगी..
मैं बहुत दिन वह कहानी नहीं लिख पाई। सिर्फ एक अहसास सा बना रहा कि उसका बच्चा मेरे जेहन में बड़ा हो रहा है, इतना बड़ा कि अब बहुत सी चीजें उसके हाथ लगती हैं, तो वह हैरान उन्हें देखे जा रहा है..
कहानी प्रकाशित हुई और बहुत दिन गुजर गए। मैं जान नहीं पाई कि उसके हाथों तक पहुँची या नहीं। सब वक्त के सहारे छोड़ दिया। उसका कोई अता-पता मेरे पास नहीं था...
एक अरसा गुजर गया था, जब एक दिन फोन आया, दिल्ली से नहीं था, कहीं बाहर से था। आवाज थी-'आपका बहुत शुक्रिया! मैंने कहानी वहीं रख दी है जहाँ चाहती थी...
इतने भर लफ्जों से कुछ पकड़ में नहीं आया था, इसलिए पूछा-'आप कौन बोल रही हैं? कौन सी कहानी?
जवाब में बस इतनी आवाज थी-'बहुत दूर से बोल रही हूँ, वही जिसकी कहानी आपने लिखी है-'नीचे के कपड़े...और फोन कट गया...
"नीचे के कपड़े???"
अचानक मेरे सामने कई लोग आकर खड़े हो गए हैं, जिन्होंने कमर से नीचे कोई कपड़ा नहीं पहना हुआ है।
पता नहीं मैंने कहाँ पढा था कि खानाबदोश औरतें अपनी कमर से अपनी घघरी कभी नहीं उतारती हैं। मैली घघरी बदलनी होतो सिर की ओर से नई घघरी पहनकर, अंदर से मैली घघरी उतार देती हैं और जब किसी खानाबदोश औरत की मृत्यु हो जाती है तो उसके शरीर को स्नान कराते समय भी उसकी नीचे की घघरी सलामत रखी जाती है। कहते हैं, उन्होंने अपनी कमर पर पड़ी नेफे की लकीर में अपनी मुहब्बत का राज खुदा की मखलूक से छिपाकर रखा होता है। वहाँ वे अपनी पसंद के मर्द का नाम गुदवाकर रखती हैं, जिसे खुदा की आँख के सिवा कोई नहीं देख सकता।
और शायद यही रिवाज मर्दों के तहमदों के बारे में भी होता होगा।
लेकिन ऐसे नाम गोदने वाला जरूर एक बार औरतों और मर्दों की कमर की लकीर देखता होगा। उसे शायद एक पल के लिए खुदा की आँख नसीब हो जाती है, क्योंकि वह खुदा की मखलूक की गिनती में नहीं जाता...
लेकिन मेरी आँख को खुदा की आँख वाला शाप क्यों मिल गया? मैं अपने सामने ऐसी औरतें और मर्द क्यों देख रहा हूँ, जिन्होंने कमर से नीचे कोई कपड़ा नहीं पहन रखा है, जिन्हें देखना सारी मखलूक के लिए गुनाह है?
कल से माँ अस्पताल में है। उसके प्राण उसकी साँसों के साथ डूब और उतरा रहे हैं। ऐसा पहले भी कई बार हुआ है और दो बार पहले भी उसे अस्पताल ले जाया गया था, पर इस बार शायद उसके मन को जीने का विश्वास नहीं बँध रहा है। अचानक उसने उंगली में से हीरे वाली अंगूठी उतारी और मुझे देकर कहा कि मैं घर जाकर उसकी लोहे वाली अलमारी के खाने में रख दूँ। अस्पताल में अभी दादी भी आई थी, पापा भी, मेरा बड़ा भाई भी, लेकिन माँ ने न जाने क्यों, यह काम उन्हें नहीं सौंपा। हम सब लौटने लगे थे, जब माँ ने इशारे से मुझे ठहरने के लिए कहा। सब चले गए तो उसने तकिए के नीचे से एक मुसा हुआ रुमाल निकाला, जिसके कोने से दो चाबियाँ बँधी हुई थीं। रुमाल की कसी हुई गाँठ खोलने की उसमें शक्ति नहीं थी, इसलिए मैंने वह गाँठ खोली। तब एक चाभी की ओर इशारा करके उसने मुझे यह काम सौंपा कि मैं उसकी हीरे की अंगूठी अलमारी के अंदर खाने में रख दूँ। यह भी बताया कि अंदर वाले की चाभी मुझे उसी अलमारी के एक डिब्बे में पड़ी हुई मिल जाएगी।
और फिर माँ ने धीरे से यह भी कहा कि मैं बम्बई वाले चाचाजी को एक खत डाल दूँ, दिल्ली आने के लिए। और दूसरी चाभी उसने उसी तरह रुमाल में लपेटकर अपने तकिए के नीचे रख ली।और जिस तरह तकदीरें बदल जाती हैं उसी तरह चाभियाँ भी बदल गई... घर में रोज के इस्तेमाल की माँ की एक ही अलमारी है, लेकिन फालतू सामान वाली कोठरी में लोहे की एक और भी अलमारी है, जिसमें फटे-पुराने कपड़े पड़े रहते हैं। पापा के ट्रांसफर के समय वह अलमारी लगभग टूट ही गई थी, पर माँ ने उसे फेंका नहीं था और साकड़-भाकड़ वाली उस अलमारी को फालतू कपड़ों के लिए रख लिया था।
घर पहुँचकर जब मैं माँ की अलमारी खोलने लगा, तो वह खुलती ही न थी। चाभी मेरी तकदीर की तरह बदली हुई थी। हाथ में थामी हुई हीरे की अंगूठी को कहीं संभालकर रखना था, इसलिए मैंने सामान वाली कोठरी की अलमारी खोल ली। यह चाभी उस अलमारी की थी। इस अलमारी में भी अंदर का खाना था। मैंने सोचा, उसकी चाभी भी जरूर इसी अलमारी के किसी डिब्बे में ही मिलनी थी...
और मैं फटे-पुराने कपड़ों की तहें खोलने लगा...
पुराने, उधड़े हुए सलमे के कुछ कपड़े थे, जो माँ ने शायद उनका सुच्चा सलमा बेचने के लिए रखे हुए थे और पापा के गर्म कोट भी थे, जो शायद बर्तनों से बदलने के लिए माँ ने संभालकर रखे हुए थे। मैंने एक बार गली में बर्तन बेचने वाली औरतों से माँ को एक पुराने कोट के बदले में बर्तन खरीदते हुए देखा था।
पर मैं हैरान हुआ-माँ ने वे सब टूटे हुए खिलौने भी रखे थे, जिनसे मैं छुटपन में खेला करता था। देखकर एक दहशत सी आई-चाभी से चलने वाली रेलगाड़ी इस तरह उलटी हुई थी, जैसे पटरी से गिर गई हो और उस भयानक दुर्घटना से उसके सभी मुसाफिर घायल हो गए हों-प्लास्टिक की गुड़िया, जो एक आँख से कानी हो गई थी, रबड़ का हाथी, जिसकी सूंड बीच में से टूट गई थी, मिट्टी का घोड़ा, जिसकी अगली दोनों टाँगें जैसे कट गई हों और कुछ खिलौनों की सिर्फ टाँगें और बाहें बिखरी पड़ी थीं-जैसे उनके धड़ और सिर उड़कर कहीं दूर जा पड़े हों- और अब उन्हें पहचाना भी नहीं जा सकता था..
मेरे शरीर में एक कंपन सी दौड़ गई-देखा कि इन घायल खिलौनों के पास ही मिट्टी की बनी शिवजी की मूर्ति थी, जो दोनों बाहों से लुंजी हो गई थी और ख्याल आया -जैसे देवता भी अपाहिज होकर बैठा हुआ है।
जहाँ तक याद आया, लगा कि मेरा बचपन बहुत खुशी में बीता था। बड़े भाई के जन्म के सात बरस बाद मेरा जन्म हुआ था, इसलिए मेरे बहुत लाड़ हुए थे। तब तक वैसे भी पापा की तरक्की हो चुकी थी, इसलिए मेरे वास्ते बहुत सारे कपड़े और बहुत सारे खिलौने खरीदे जाते थे...लेकिन पूरी यादों के लिए इन टूटे हुए खिलौनों की माँ को क्या जरूरत थी, समझ में नहीं आया...
सिर्फ खिलौने ही नहीं, मेरे फटे हुए कपड़े भी तहों में लगे हुए थे-टूटे हुए बटनों वाले छोटे-छोटे कुरते, टूटी हुई तनियों वाले झबले और फटी हुई जुराबें भी...
और फिर मुझे एक रुमाल में बँधी हुई वह चाभी मिल गई, जिसे मैं ढूँढ रहा था। अलमारी का अंदर वाला खाना खोला, ताकि हीरे की अंगूठी उसमें रख दूँ।
यही वह घड़ी थी जब मैंने देखा कि उस खाने में सिर्फ नीचे पहनने वाले कपड़े पड़े हुए थे..
और अचानक मेरे सामने वे लोग आकर खड़े हो गए हैं जिनके सिर भी ढँके हुए हैं, बाहें भी, ऊपर के शरीर भी- लेकिन कमर से नीचे कोई कपड़ा नहीं है...
प्रलय का समय शायद ऐसा ही होता होगा, मालूम नहीं। मेरे सामने मेरी माँ खड़ी हुई है, पापा भी, बम्बई वाले चाचा भी और कोई एक मिसेज चोपड़ा भी और एक कोई मिस नंदा भी- जिन्हें मैं जानता नहीं।
और खोए हुए से होश से मैंने देखा कि उनके बीच में कहीं भी मैं भी गुच्छा सा बनकर बैठा हुआ हूँ...
न जाने यह कौन सा युग है, शायद कोई बहुत ही पुरानी सदी, जब लोग पेड़ों के पत्तों में अपने को लपेटा करते थे..और फिर पेड़ों के पत्ते कागज जैसे कब हो गए, नहीं जानता...
अलमारी के खाने में सिर्फ कागज पड़े हुए हैं, बहुत से कागज जिन पर हरएक के तन की व्यथा लिखी हुई है-तन के ताप जैसी, तन के पसीने जैसी, तन की गंध जैसी...
ये सब खत हैं, बम्बई वाले चाचाजी के और सब मेरी माँ के नाम हैं...
तरह-तरह की गंध मेरे सिर को चढ रही है..
किसी खत से खुशी और उदासी की मिली-जुली गंध उठ रही है। लिखा है, 'वीनू! जो आदम और हव्वा खुदा के बहिश्त से निकाले गए थे-वह आदम मैं था और हव्वा तुम थीं...
किसी खत से विश्वास की गंध उठ रही है-'वीनू ! मैं समझता हूँ कि पत्नी के तौर पर तुम अपने पति को इंकार नहीं कर सकती, लेकिन तुम्हारा जिस्म मेरी नजर में गंगा की तरह पवित्र है और मैं शिवजी की गंगा को जटा में धारण कर सकता हूँ...
किसी खत से निराशा की गंध उठ रही है-'मैं कैसा राम हूँ, जो अपनी सीता को रावण से नहीं छुडा सकता...न जाने क्यों, ईश्वर ने इस जनम में राम और रावण को सगे भाई बना दिया!
किसी खत से दिलजोई की गंध उठ रही है-'वीनू! तुम मन में गुनाह का अहसास न किया करो। गुनाह तो उसने किया था, जिसने मिसेज चोपड़ा जैसी औरत के लिए तुम्हारे जैसी पत्नी को बिसार दिया था..
और अचानक एक हैरानी की गंध मेरे सिर को चढी, जब एक खत पढा-'तुम मुझसे खुशनसीब हो वीनू! तुम अपने बेटे को बेटा कह सकती हो, लेकिन मैं अपने बेटे को कभी भी अपना बेटा नहीं कह सकूँगा।
और अधिक हैरानी की गंध से मेरे सिर में एक दरार पड़ गई, जब एक दूसरे खत में मैंने अपना नाम पढा। लिखा था-'मेरी जान वीनू! अब तुम उदास न हुआ करो। मैं नन्हें से अक्षय की सूरत में हर वक्त तुम्हारे पास रहता हूँ। दिन में मैं तुम्हारी गोद में खेलता हूँ और रात को तुम्हारे पास सोता हूँ...
सो मैं..मैं...
जिंदगी के उन्नीस बरस मैं जिसे पापा कहता रहा था, अचानक उस आदमी के वास्ते यह लफ्ज मेरे होठों पर झूठा पड़ गया है...
बाकी खत मैंने पूरे होश में नहीं पढे, लेकिन इतना जाना है कि जन्म से लेकर मैंने जो भी कपड़ा शरीर पर पहना है, वह माँ ने कभी भी अपने पति की कमाई से नहीं खरीदा था। मिट्टी का खिलौना तक भी नहीं। मेरे स्कूल की और कॉलेज की फीसें भी वह घर के खर्च में से नहीं देती थी..
यह भी जाना है कि बम्बई में अकेले रहने वाले आदमी से कुछ ऐसी बातें भी हुई थीं, जिनके लिए कई खतों में माफियाँ माँगी गई हैं, और उस सिलसिले में कई बार किसी मिस नंदा का नाम लिखा गया है, जो खत लिखने वाले की नजरों में एक आवारा लड़की थी, जिसने मेनका की तरह एक ॠषि की तपस्या भंग कर दी थी...और कई खतों में माँ की झिड़कियाँ सी दी गई हैं कि ये सिर्फ उसके मन के वहम हैं, जिनके कारण वह बीमार रहने लगी है...
यह माँ, पापा, चाचा,मिसेज चोपड़ा, मिस नंदा-कोई भी खानाबदोशों के काफिलों में से नहीं है- पर खानाबदोशों की परंपरा शायद सारी मनुष्य जाति पर लागू होती है, सबकी घघरियों और सबके तहमदों पर, जहाँ उनके शरीर पर पड़ी उनके नेफे की लकीर पर लिखा हुआ नाम ईश्वर की आँख के सिवा किसी को नहीं देखना चाहिए।...और पता नहीं लगता कि आज मेरी आँख को ईश्वर की आँख वाला शाप क्यों लग गया है..
सिर्फ यह जानता हूँ कि ईश्वर की आँख ईश्वर के चेहरे पर हो तो वरदान है, लेकिन इन्सान के चेहरे पर लग जाए तो शाप हो जाती है...।
रचनाकार : अमृता प्रीतम
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