तोतली जुबान वाला हर्ष : संस्मरण "तातू, तातू, आ गए मेरे तातू" सर पर बेतरतीब बिखरे बाल, बदन पर पुरानी टी-शर्ट एवं अधफटी...
"तातू, तातू, आ गए
मेरे तातू" सर पर बेतरतीब बिखरे बाल, बदन पर पुरानी टी-शर्ट एवं अधफटी नेकर पहने
महज 5 बरस का बालक हर्ष मुझे बुलाते हुए बाहर निकला। उस वक्त ढलती शाम की गौधिरिया
के अँधेरे में भी उसके चेहरे पर प्रशन्नता एवं कौतूहल को साफ पढ़ा जा सकता था। जब तक
मैं उसकी तरफ बढ़कर उसको उठाने के हाथ बढ़ाता, तब तक वह अपने दोनों हाथों से मेरी टांगों
को समेटते हुए लिपट चुका था। उसके इस अपनेपन को देखकर मुझसे भी रहा न गया, मैंने अपने
सफेद शर्ट, टाई और कोट की परवाह किए बिना उसको अपनी गोद में लेकर गले लगा लिया। उसके
गले से लिपटने का एहसास बिना कुछ कहे ही अपनेपन का अहसास कराने के लिए पर्याप्त था।
खैर! यह वही हर्ष था, जो मुझे दिलो-जान से प्यारा था।
"तातू,
पता है! मेले स्तूल में आज तबसे दादा लंबर मेला आया है" कमरे की तरफ बढ़ते कदम
के साथ-साथ तोतली आवाज में हर्ष मुझे अपनी बात सुनाता रहा। कमरे की चाबी बैग से निकालने
के लिए मैंने हर्ष को गोद से नीचे उतारा। जब तक कि मैं दरवाजा खोलकर अपना ड्रेस उतारकर
हैंगर में टांगता और गमछा लगाता, इतने में वह तपाक से एक पीले रंग का सर्टिफिकेट लेकर
मेरे पास आ पहुँचा। "जो तुम्हारे तातू तुम्हे लोज पलाते हैं वो बहुत अत्ते हैं"
स्कूल के टीचर की कही बात को हर्ष मुझसे बताने लगा। आज उसका प्रेम कुछ ज्यादा ही उमड़
रहा था क्योंकि मैं 2 दिन अपने गॉव 'अंतू' में बिताने के बाद उससे मिल रहा था। मेरे
लिए इससे ज्यादा खुशी की बात और हो भी क्या सकती थी कि जिसको बरस भर पूरे मन से मैंने
पढ़ाया हो, वह आज कक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त किया हो।
मेरे
कमरे के बाद तीसरे नंबर का कमरा, जिसमें एक संभ्रांत ब्राह्मण परिवार से ताल्लुक
रखने वाले मिश्रा जी, पत्नी और दो बच्चों सहित रहते थे। "मजबूरी का नाम
महत्मा गांधी" यह कहावत उन पर पूरी तरह से चरितार्थ होती दिखती थी। साढ़े छः
फुट लंबे हट्टे-कट्टे गठीले बदन वाले मिश्रा जी अपने जीवन के सबसे बुरे दौर से
गुजर रहे थे, गरीबी का आलम उनपर खूब कहर बरपा रहा था, स्थिति यहाँ तक बिगड़ चली थी
कि खुद का पेट पालना भी भारी पड़ रहा था, तिस पर पत्नी और दो बच्चे भी। बच्चों के
पास न तो तन ढकने का ढंग से कपड़ा था, न तो स्कूल की फीस, ट्यूसन की तो सोच भी नहीं
सकते थे। मिश्रा जी की 7-8 हजार वाली नौकरी छूटे महीनों बीत चुके थे, भगवान ऐसे
रूठे थे कि वे जहाँ कहीं भी नौकरी करने जाते, 4-6 दिन से ज्यादा टिक नहीं पाते थे।
मकान मालिक भी एक मिश्रा जी ही थे, जिनका मूल निवास नैनी का 'चटकहना' गाँव था, वे
बी. पी. सी. एल. से सेवानिवृत्त होकर नैनी के रेमंड चौराहे पर तकरीबन दो बीघे में
15 कमरों का मकान को किराए पर दिए थे और बची जमीन पर खेती करते थे। स्वभाव से बड़े दयालु
एवं जमीनी सोच रखने वाले मकान मालिक, किरायेदार मिश्रा जी की इस तंगी को देखते हुए
उनसे किराया माँगना भी बन्द कर दिए थे।
बात
सन 2009 की है, मुझे उस मकान में रहते महीनों बीत चले थे, यूनाइटेड इंजीनियरिंग
कॉलेज से लगभग दूसरा सेमेस्टर भी मेरा बीतने को था। सन 2008 के प्रारंभिक दिनों से
जब से मैं वहाँ रह रहा था, तब से ही उस मकान में रहने वाले बच्चों को निःशुल्क रूप
से शाम को एक घंटे पढ़ाना मेरी दिनचर्या बन चुकी थी। जिस भी दिन मैं किसी कारणवश न
पढ़ा पाता मुझे स्वयं पर पश्चाताप होता, मुझे ऐसा लगता कि आज मैंने न जाने क्या खो
दिया है? धीरे-धीरे समय बीतने के साथ-साथ उन बच्चों में विशेषतौर पर हर्ष से मेरा
लगाव अत्यंत प्रगाढ़ होता चला गया, मुझे हर्ष में एक स्वर्णिम भविष्य नजर आने लगा
क्योंकि वह हाजिर-जवाब, फुर्त और कुशाग्र बुद्धि का बालक था। मुझे इस बात का पूरा
यकीन था कि हर्ष पर मेरी अटूट मेहनत कभी बेकार नहीं जाएगी, एक न एक दिन यह अवश्य
मेरा और घर-परिवार का नाम रौशन करेगा।
मेरी
उम्र उस बखत कुछ 17 बरस की रही होगी। हर्ष से प्रगाढ़ लगाव के पीछे एक और वजह भी
थी, उस वक्त हर्ष जिन परिस्थितियों से होकर गुजर रहा था, कभी वो मेरे बचपन का बीता
पल हुआ करता था। वास्तविकता तो यह थी कि हर्ष में मुझे अपना बीता कल साफ-साफ नजर
आता था, जिससे मेरी बचपन की स्मृतियाँ ताजी हो उठती थीं। वहाँ पर रहने वाले मुझे
और हर्ष को देखकर आश्चर्यचकित रहते थे कि यह कोट, पैंट और टाई वाला इंजीनियरिंग का
मॉडर्न स्टूडेंट इस गरीब बच्चे से इतना लगाव क्यूं रखता है?
जीवन
के तकरीबन 80 बसंत गुजार चुके और ए. डी. ओ. के पद से सेवानिवृत्त लालता प्रसाद
मिश्र जी और उनकी धर्मपत्नी मेरे कमरे के ठीक दूसरी तरफ रहा करते थे। उम्र भले ही
उनकी 80 बरस की हो चली थी, परंतु वो आधुनिक चीजों से अपडेट रहने वाले, युवा पीढी
को खासा तवज्जो देने वाले, ऊर्जावान एवं बड़े ही मंझे हुए व्यक्ति थे। झुर्रीदार
चेहरे पर बिल्कुल धुर सफेद बाल कभी भी उनके बुढापे की शिथिलता को नहीं दर्शाते थे।
ऐसा लगता था कि मेरा और उनका जन्मों का संबंध है, मैं उनको नाना जी कहकर पुकारता
था। वहाँ पर किसी भी किरायेदार को कभी भी यह अहसास तक भी नहीं हुआ कि वे मेरे सगे
नाना जी हैं या नहीं? फिर क्या, इसके पीछे नानी जी का भी बड़ा हाथ था, मेरी किसी भी
गलती पर वे मुझे डाटने-डपटने में तनिक भी देरी नहीं किया करती थी। इससे इतर, यह भी
विशेष बात थी कि वह तोतली जुबान वाला हर्ष जितना प्रिय मुझे था, उतना ही वह
नाना-नानी को भी था। अक्सर प्रत्येक रविवार के दिन मेरे, नाना जी और हर्ष के बीच
वाद-संवाद को सुनने मकान के अन्य सारे किरायेदार भी एकत्र हो जाया करते थे,
क्योंकि विशेष बात तो यह होती थी कि कहाँ एक 80 बरस के बुढापा, दूसरा 17 बरस का
नवयुवक मैं और तीसरा 5 बरस का ढंग से न बोल पाने वाला छोटा हर्ष। उमर में इतने
अंतर के होते हुए सामान्य रूप से ऐसा आपसी मेल-जोल लोगों को कम ही देखने को मिलता
था।
वर्ष
2009 से 2010 तक पूरे सालभर बेहद लगन से हर्ष को एक बेहतर इंसान बनाने और पढ़ाई में
अव्वल रहने के मैंने खूब गुर सिखाए। साल बीतते-बीतते मेरे और हर्ष के लगाव को
देखते हुए कोई अंजान व्यक्ति उत्सुकता से यह कह देता था कि तुम दोनों भाई एक साथ
रहकर पढ़ाई करते हो क्या? फिर क्या रहता, मैं भी एक सहज मुस्कान के साथ हाँ का
इशारा करते हुए सर हिलाना ही उचित समझता था।
एक
सुबह घर से फोन आया, सामने से आवाज आई "साहेब (मेरा घर का नाम), तुम्हारे लिए
इंडियन नेवी से एक लेटर आया है" वह आवाज मेरी माँ की थी, उनके लहजे में एक
प्रभुल्लता थी, आशीर्वाद का भाव था और माँ का प्यार था। उनकी बातों से मुझे ऐसा लग
रहा था कि मानों वो मेरे सामने खड़ी होकर मुझे आशीष दे रही हों। थोड़ी देर बात करने
के बाद फोन छोटे भाई शुभम के हाथों में पहुँच चुका था, उसने बिल्कुल साफ बताया कि
"ये आपके ट्रेनिंग का कॉल लेटर है, जो आया है, एक महीना बाद 29 जुलाई को उड़ीसा
में ट्रेनिंग ज्वाइन करना है"। थोड़ी देर बात करके मैंने फोन रखते ही बिना
किसी लाग-लपेट के अपने समानों की पैकिंग शुरू कर दी। 2 दिन बाद मैंने वहां से अपने
घर के लिए विदा लेने की तैयारी बना ली, खासतौर पर प्यारे हर्ष को ढेर सारी
शुभकामनाएं देते हुए भविष्य में हर संभव मदद का भरोसा दिया। हर्ष और उसके पूरे
परिवार की आंखें नम थी, अंततः मैंने भी सबका चरण वंदन करके वहां से अंतिम विदा ले
ली।
नौसेना
ज्वाइन करने के 4-5 साल के व्यस्तता भरे दौर से जैसे ही उबर पाया कि साल 2014 में
मैंने उस नैनी के रेमंड तिराहे पर स्थित मिश्रा जी के मकान की सुधि ली। मुझे
मिश्रा जी के मकान में बैठे 10 मिनट भी नहीं बीता था कि मकान मालिक मिश्रा जी खेत
से आते हुए दूर से ही मुझे देखते ही तपाक से बोल पड़े कि "शिवम! कुछ सुने
हो" उनके चेहरे पर एक गहरा असंतोष साफ झलक रहा था। जब तक कि वो मेरे पास आते,
मैं दो-तीन कदम नापकर उनके चरण स्पर्श करते हुए कहा "नहीं दादा जी, सुना तो
नहीं"। फिर वो कुछ सेकंड तक अवाक थे, निःशब्द थे, रुंधे हुए गले से मुझे सीने
से लगाते हुए बोल पड़े कि "अब हर्ष नहीं रहा, इस संसार में, एक सुबह वो इसी छत
से नीचे गिर गया, हम सबने बहुत कोशिश की, मगर वो अब साथ नहीं है।" थोड़ी देर
तक मैं सन्न रह गया, बस यही सोचता रहा कि आखिर यह क्या हो गया? मुझे अपने पर
प्रायश्चित हो रहा था कि काश! मैं कुछ दिन पहले आता, जब मेरा हर्ष जीवित था..। कुछ
ही मिनट बीते थे कि मैंने मकान मालिक से विदा लेने की आज्ञा माँगी। वे कमरे से
बाहर निकलते हुए मेरे हाथों में कुछ कागज के बने ग्रीटिंग और कटिंग थमाकर बोले,
"अपनी अमानत संभालिये शिवम, इतने दिन मैं संभाल रखा था, यह सब तुम्हारे लिए
हर्ष ने बनाया था और वह कहता रहता था कि जब मेरे शिवम तातू आयेगें तो उनको दे
दूंगा। उसके पिता जी जाते समय मुझे ये सब सौंप गए और बोले कि कभी शिवम आएं तो उनको
सौंप देना।" कुछ पल मैं एकटक नजरें गड़ाए उसको देखता रहा, मद्धिम टपकती मेरे
आँसुओं की धार से वह सब भीग चुका था। मेरे कदम स्वतः ही घर के बाहर यह सोचते हुए
बढ़ चले कि आज हर्ष महज मेरी स्मृतियों में शेष है, काश! आज वह तोतली जुबान वाला
हर्ष हमारे पास होता तो बात ही कुछ और होती?
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