'शहर'- ( वेणुपत्र से उद्धृत कविता शहर ) प्रदूषण है, हवा में जहर है, हाँ भाई साहब! यह शहर है। हर जगह यहाँ हलचल है, बनत...
प्रदूषण है, हवा में जहर है,
हाँ भाई साहब! यह शहर है।
हर जगह यहाँ हलचल है,
बनती खबर पल -पल है।
भीड़ है, पर ,हर कोई यहाँ पर होता है अकेला,
मन का न कोई संगी-साथी, इतना बड़ा है मेला।
स्वार्थ की यह नगरी है, साहब!
मिलते हैं,जब होता है मतलब।
भीड़ में खड़े हैं सब;
कोई किसी को न जानता है,
न किसी को पहचानता है।
दुर्भाग्यवश, किसी घर में,
हो मंत्रोच्चार श्राद्ध का,
उत्सव मनाना, पार्श्व में,
यह काम नहीं कोई बाध का।
अपने फायदे -घाटे देखकर,
बातें यहाँ होती हैं ,
मुख ढोता है मुस्कान पर,
आत्मा, भीतर, रोती है।
गाँव जैसा चौपाल नहीं,
रिश्तों की न होती है दुहाई,
धन से धन तोला जाता है ,
शहर में यही नियम है, भाई!
भावना नहीं दिखती है यहाँ,
बस, जरूरी होता काम है,
कोई किसी को नहीं ताकता,
आज ये, कल वो सड़क, जाम है।
दौड़ा -दौड़ और भागा -भाग में,
किसी को यहाँ न फुरसत है,
दूसरों की तो ,छोड़िए साहब!
क्या, अपने लिए बखत है?
अध्यात्म पर चर्चा यहाँ,
बस -ट्रेन में हो जाती है,
सामाजिकता, राजनीति की ,
तभी ही बारी आती है।
तन भाग रहा,मन उलझन में,
हर वक्त डुबा, मन है धन में।
सब छोड़-छाड़ कर भाग गई,
वह चिड़िया तो है रुसल,
शहर-सभ्यता पीछा करती
हो, ले दुत्कार -मूसल।
शहर बीच, तालाब देखिए,
कचरा को गींज रहा, पानी,
हम सभ्य हैं, तो क्यों करते हैं
पर्यावरण से बेमानी?
कचरों का पर्वत देख -देख,
पर्यावरण बीमार है,
दबता जा रहा बेचारा,
गंदगी का कितना भार है?
कितनों के मन विचलित हैं,
गुस्सा है, अवसाद है,
नव -संस्कृति का उसे यही
क्वचित्, मिला प्रसाद है।
आहें भरता है कोई,
कोई घमंड में चूर है,
पहरा तनाव का है कुछ पर,
कष्टों में, कुछ बेकसूर हैं।
ऐसा नहीं है कि शहर में सब ठीक -ठाक नहीं है,
अथवा अच्छी जिन्दगी की, यहाँ पर लीक नहीं है।
स्वास्थ्य हो या शिक्षा हो,
फिर, विषय हो रोजगार का,
बेहतर है, इसलिए सभी रुख
करते हैं शहर-द्वार का।
मिहनत कर जो कमाते हैं धन,
उनके घर में हर सुविधा है,
जैसे जीवन जीना चाहें ,
न टाँगअड़ौअल ;सीधा है।
व्यर्थ समय बिताने की
ऐसी न यहाँ पर परंपरा,
समझ यही आया मुझको,
है भावना से कर्म बड़ा।
न व्यंग्य, न टोका -टाकी,
बस, अपने काम से, काम रहे,
सेवा -सुविधा के तंत्र हैं,
मिलेंगे नियमतः,दाम रहे।
पक्षपात और भेदभाव,
एक हदतक, इनसे राहत है,
खुशी जरूर उनको मिलती,
जो हुए कभी भी आहत हैं।
अच्छे -बुरे शहर में भी,
हैं गाँवों में भी सज्जन -दुर्जन,
जीवन की शैली अलग -अलग ,
यह निर्णय तो, करता है मन।
किसी सभ्यता का भी क्या,
होता है कोई गुनाह?
शैली का अच्छा -बुरा लगना,
यह तो है लोगों की चाह ।
सूक्ष्म -संस्कृति अलग -अलग
है, गाँव की, और शहर की,
अपनी -अपनी है पसन्द, भिन्न
जीवन -शैली, हर घर की।
शहर है ; यहाँ चकाचौंध है,
सुविधाएँ हैं, आकर्षण भी,
सोता नहीं है शहर कभी,
आराम भी, और घर्षण भी।
रचनाकार : राज किशोर मिश्र (मधुवानी , बिहार
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