कविता मृत्तिका से बनी दीवारें , छत है खर-पुआल की, टाट का है दरवाजा, पर, घर खुश! बात कमाल की! रिक्सा चलाता उसका पति, ...
कविता
मृत्तिका से बनी दीवारें
,
छत है खर-पुआल की,
टाट का है दरवाजा,
पर, घर खुश! बात कमाल की!
रिक्सा चलाता उसका पति,
करती है खुद, खेतों में काम,
मिल जाता जो रूखा -सूखा,
खुश रहती वह अपने ठाम।
शायद, नहीं जानती है वह,
होता क्या संतुलित भोजन,
परिवार मनाता है उत्सव,
पाकर के भी केवल ओदन।
गिनी जा सकती अस्थियाँ,
बच्चे क्या, उसके भी तन में,
कभी -कभी जठराग्नि से,
पाती है बहुत पीड़ा मन में।
चावल रहे तो माँड़ संग
कर लेता है भोजन ,परिवार,
पर ,दवा नहीं मिल पाती है,
जब होता है कोई बीमार।
चिथड़ों से ही हो जाती है,
घर में वस्त्र -व्यवस्था,
साबुन तन को सौभाग्य है,
आर्थिक है यही अवस्था।
देह की जो हड्डियाँ,
वज्र जैसी हैं कठोर,
जगह -जगह साड़ी सिली,
वही उसका है पटोर।
गरीबी में भी जीती कला,
पर, रूप उसका होता है भिन्न,
मृदा -भृत्ति पर चित्रकला,
है कलाजगत पर उसका ऋण।
निर्धनता की परिधि में भी,
जाकर बसती है जिन्दगी,
वहाँ, किन्तु निश्छलता है,
न छद्म, कपट की गंदगी।
आधा पेट भोजन -पानी ,
उस तन पर रोती है बयस,
धरती के धन पर दुरभिसंधि,
निर्धन वश जब न अन्न -पयस्।
अस्थि-पिंजर बुभुक्षित बदन
का
वह तो ऐसे ही दिखता है,
जर्जर -तन का यौवन भी
निर्धनता -लिपि में लिखता
है।
वसुधा पर हैं ,जीवन के
वे सभी संसाधन,
किन्तु, रिक्त रह जाता है,
निर्धन घर का बासन।
इस जगत में धन -अर्जन के
प्राप्त हैं कितने ही तंत्र,
पर, अकिंचन जानता है
श्रम को केवल उसका मंत्र।
धनलोलुपता से बनता है,
धन -संग्रह का मकड़ाजाल,
पर्वत कहीं खड़ा सम्पत्ति
का,
कहीं, भूख का तांडव- ताल
।
धरती के ही दोनों वासी,
क्या प्रकृति ने छीना अधिकार?
धन-वितरण मानव की रचना,
बटवारा, यह तो बेकार।
मुक्तहस्त से दिया प्रकृति
ने,
भू पर संसाधन -वैभव ,
आवश्यक आवश्यकताएँ,
कुछ, उनसे भी ,वंचित हैं
जब।
श्रापित क्यों होता है कोई,
श्रम करके भी, निर्धनता से?
शर्म क्यों आती है धन को,
डरता क्यों निर्धन जनता से?
सभ्यता की बात जब -जब,
होती रहती है धरा पर,
जब, भूखा कोई सोता है,
बनता कोई कैसे बड़ा, पर?
आ जाती है तब मानवता
भी, प्रश्न की परिधि में,
उस सभ्यता की श्रेष्ठता,
सुरक्षित कहाँ उस विधि में?
भूख जब मिटती, तभी
सभ्य रहती, सभ्यता,
स्वाहा होती जठरानल में,
सिद्धान्तों की भव्यता।
उदरपूर्ति उपरान्त ही,
आदर्श -मानक सूझता,
भूख से जलता बदन
तो, जीवन हेतु जूझता।
प्रकृति की सम्पत्ति में
है,
हर पृथ्वी -वासी का अधिकार,
किन्तु , कर हो किसी नर का
क्रियाहीन, होगा स्वीकार?
पुरुषार्थ के अनुपात में,
मिलता है वसुधा पर वैभव,
तारा- प्रभुता केअनुरूप
, ठाम
उसको आवंटित करते नभ।
पर ,चमक रहे हैं सारे तारे,
उनमें न है कोई ज्योतिहीन,
वैसे ही ,वसुन्धरा घर -घर
में,
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